गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

आविष्कार


सूरज को झेल सकने में असमर्थ आँखों ने

नियॉन बतियों में जीना सीख लिया।

हवा के थपेड़ों से घबराई पाँखों ने

कोटरों में सिर छिपाना सीख लिया।

एक के बाद दूसरे आविष्कारों के साथ

फैलते बुद्धि के प्रकल्प के आगे संसार सिमट गया है,

सितारे जुगनू बन गए हैं

चाँद रेत के टीले सा लगने लगा है।

प्रकृति का हर रहस्य आविष्कृत

हो गया है।

आविष्कृत होने को शेष

रह गया है मन।

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

मछली की चाह


बड़े तड़के हाथ में बंसी लिए

कागज की पुड़िया में चारा लपेटे

वह नदी किनारे पहुँच जाता है

उसकी दिनचर्या का अंग है यह

एकाग्र भाव से बंसी में चारा फँसाना,

उसे नदी की धारा में फेंकना

फिर धागे में बँधी कंड़े के छोटे टुकड़े के डूबने की प्रतीक्षा,

फँस गई है मछली कभी छोटी, कभी बड़ी भी,

हर दिन एक बड़ी, एक ओर बड़ी मछली की चाह

एच्छाओं के पैर नहीं

पंख होते हैं।

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

आग


आग जिंदगी देती है
जिंदगी को ऊष्मा देती है
ऊष्मा को उसकी पराकाष्ठा बताती है
और जिंदगी को उसकी नियति देती है,
आग जिंदगी को उसकी नियति देती है,
आग जिंदगी देती है
खाने से लेकर
जिंदगी के बर्फीले क्षणों के गुजारने तक में 
अपनी भूमिका निभाती है,
आग जब बाहर होती है आदमी से 
तो रोशनी देती है
आग जब भीतर होती है आदमी के
तो सड़े गले तन्तुओं को भस्म कर
एक नई संरचना खड़ी करती है
आग धरती से उठकर 
पानी में लगती है
पानी से निकल कर
मन में लगती है
और तब यह दुनियाँ
हिलती है, डोलती है
और धराशयी होती है।

तुम्हारे जाने के बाद


समाधि का लगना या टूटना

मैं नही जानता,

टूथपेस्ट, ब्लेड, साबुन,

तौलिया और इसी तरह की कई छोटी मोटी चीज़ें

मेरे आगे पीछे घूमती रहती हैं

एक के बाद एक,

मैं जहाँ हूं वहाँ आसमान नहीं होता

होती है पिटी पिटाई छत

और छत से बाहर जाने के पहले

इन छोटी मोटी चीजों से उलझना होता है

मुक्ति का मार्ग ढूंढने के लिए

अखबार का सहारा लेना

रेडियो के स्विच ऑन करना

दूरदर्शन पर हो रहे उलटे सीधे हलचलों में रमना

यह सब कुछ विफल हो जाता है

तुम्हारे जाने के बाद।

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

जिजीविषा

दूब
पीली भले हो जाय
मरती नहीं है
पत्थर के नीचे
दबीउसकी जिजीविषा
उसे सतत संघर्ष की शक्ति
देती है और
बीमार सी लगती दूब
पत्थर की दरारों से बाहर आ जीती है,
पत्थर की दरारें तो पड़ती ही हैं
सिर्फ समय की बात है।

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

हँसिया


हँसिया या दिखने वाला चाँद

इधर मुटिया कर गोल हो गया है

हँसिया से खेलता और फिर जूझता

मेरा गोल मटोल बेटा

आँत के पीठ में सट जाने से

हँसिया या दीखने लगा है

कभी मैंने अपनी आंतों में

दाँत जामने की कल्पना की थी

शायद मेरा बेटा भी

तीसरे पहर भूख की तिलमिलाहट में

ऊपर आकाश की ओर देखकर

ऐसा ही सोचता है।

पीढ़ियों से आता हुआ यह सोच

हमें सिर्फ हँसिया ही बनता रहेगा

या हमारी कुलबुलाती आँतों में

हँसिया जैसे दाँत भी पैदा करेगा ?

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

आदमी और नदी


आदमी अगर आदमी न हुआ होता
तो नदी नदी नहीं हुई होती।
आदमी के बिना जल को बहने
की जरूरत भी क्या होती ?
आदमी और नदी का साम्य,
दोनों का रिशता –
जैसे किसी छोर पर खड़े आदमी के
निमंत्रण पर
जंगल, पहाड़, चट्टान सबसे जूझती नदी
खिंचती चली आ रही हो।
आदमी भी तो खुद खिंचता हुआ
एक बिंदु से दूसरे बिंदु पर
एक घाट से दूसरे घाट पर
एक जगत से दूसरे जगत तक 
भटकता रहा है।
कैसे साभ्य है
कि यह बहाव 
न तो नदी को
अपने उद्गम से काट पाता है
और न आदमी को।