मंगलवार, 21 सितंबर 2010

आदमी और नदी


आदमी अगर आदमी न हुआ होता
तो नदी नदी नहीं हुई होती।
आदमी के बिना जल को बहने
की जरूरत भी क्या होती ?
आदमी और नदी का साम्य,
दोनों का रिशता –
जैसे किसी छोर पर खड़े आदमी के
निमंत्रण पर
जंगल, पहाड़, चट्टान सबसे जूझती नदी
खिंचती चली आ रही हो।
आदमी भी तो खुद खिंचता हुआ
एक बिंदु से दूसरे बिंदु पर
एक घाट से दूसरे घाट पर
एक जगत से दूसरे जगत तक 
भटकता रहा है।
कैसे साभ्य है
कि यह बहाव 
न तो नदी को
अपने उद्गम से काट पाता है
और न आदमी को।

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