सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

मछली की चाह


बड़े तड़के हाथ में बंसी लिए

कागज की पुड़िया में चारा लपेटे

वह नदी किनारे पहुँच जाता है

उसकी दिनचर्या का अंग है यह

एकाग्र भाव से बंसी में चारा फँसाना,

उसे नदी की धारा में फेंकना

फिर धागे में बँधी कंड़े के छोटे टुकड़े के डूबने की प्रतीक्षा,

फँस गई है मछली कभी छोटी, कभी बड़ी भी,

हर दिन एक बड़ी, एक ओर बड़ी मछली की चाह

एच्छाओं के पैर नहीं

पंख होते हैं।

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