मंगलवार, 21 सितंबर 2010

आदमी और नदी


आदमी अगर आदमी न हुआ होता
तो नदी नदी नहीं हुई होती।
आदमी के बिना जल को बहने
की जरूरत भी क्या होती ?
आदमी और नदी का साम्य,
दोनों का रिशता –
जैसे किसी छोर पर खड़े आदमी के
निमंत्रण पर
जंगल, पहाड़, चट्टान सबसे जूझती नदी
खिंचती चली आ रही हो।
आदमी भी तो खुद खिंचता हुआ
एक बिंदु से दूसरे बिंदु पर
एक घाट से दूसरे घाट पर
एक जगत से दूसरे जगत तक 
भटकता रहा है।
कैसे साभ्य है
कि यह बहाव 
न तो नदी को
अपने उद्गम से काट पाता है
और न आदमी को।

रविवार, 19 सितंबर 2010

दूरियाँ


पिघलती बर्फ पर चलना
जितना मुशकिल है,
उससे अधिक मुशकिल है
तुम्हारी आँखों को पढ़ना।

सारे शब्द
जंगल के वृक्षों पर
मृत सर्पों की तरह लटके हैं
क्योंकि ये तुम तक किसी तरह
पहुँच नहीं सकते
और जो मुझ तक 
पहुँचते हैं
वे सिर्फ दस्तक देते हैं
द्वार खुलने की प्रतीक्षा नहीं करते।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

फूल


तुमने कहा था तुम्हें फूल बहुत पसंद हैं
और मैं ढ़ेर सारे फूलों के बीज लेकर आया हूँ
किन्तु तुम्हारे घर आँगन के पत्थरों को देखकर
सोचता हूं इन बीजों का क्या करूँ ?
अच्छा होता
अगर मैं इन बीजों के साथ मुट्ठी भर मिट्टी लेकर आता
और अपनी हथेली में ही
हाथों की ऊष्मा
और तुम्हारी आँखो की नमी से अँजुरी भर फूल उगाता !