बुधवार, 30 जून 2010

संवाद की शुरुआत


'जीना' और 'होना' दो अलग चीजें हैं। जब हम बिना किसी प्रतिक्रिया के सबकुछ झेलते हैं तो हम होते हैं। जब हम अपने अस्तित्व के अर्थ की तलाश करते हैं तो हम जीते हैं। लगभग 6 दशकों की अनुभूतियों की एक माला पिरोई जाए तो हवा, पानी, मौसम के बदलने के साथ सोच में भी जाने अनजाने परिवर्तन आता है। इसके लिए किसी विद्वता की आवश्यक्ता नहीं होती। चेहरे की झुर्रियां मानस पटल पर अपना प्रतिबिम्ब छोड़ती है जिसे कार्ल गुस्टाव युग ने रेशियल अचेतन की साईंस दी है। यह रेशियल अचेतन अत्यन्त ही गुप्त रूप से दिशा निर्देश देता हैं। उसे ही हम कहते हैं – ज़माना बदल रहा है। ज़माने के इस बदलाव पर मित्रों के साथ चर्चा करने के लिए कालान्तर को रचने की योजना है।

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